‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से फायदा या नुकसान? जानें और समझें हर पहलू बारीकी से ;

वन नेशन वन इलेक्शन

StatesNews Desk Delhi; देशभर में एक साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव कराने की संभावनाओं पर विचार करने के लिए केंद्र ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की नेतृत्व में एक पेनल का गठन किया। नीति आयोग ने भी इसकी सिफारिश की है।

‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। सरकार ने विधानसभा ओर लोकसभा चुनावों को एकसाथ कराए जाने के प्रस्ताव का अध्ययन करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्ययक्षता में एक पेनल का गठन किया है। कोविन्द का पेनल लोकसभा ओर राज्य विधानसभा चुनाव एकसाथ कराने की संभावनाओं और तंत्र का पता लगाएगा। हालांकि, यहाँ यह बताना जरूरी हो जाता है की भारत में 1967 तक लोकसभा और विधानसभा एकसाथ होते रहे थे। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग इस सिलसिले से पहले ही अपनी सिफारिश कर चुका है।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और 2015 से 2019 तक नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है की एक भी साल ऐसा नहीं गया है जब किसी राज्य विधानसभा या लोकसभा के लिए चुनाव ना हुआ हो। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है की यही स्तिथि आगे भी बनी रहने की भी संभावना है। इस स्तिथि के कारण बड़े पैमाने पर धन खर्च के साथ-साथ सुरक्षा बलों ओर जनशक्ति आदि की लंबे समय तक तैनाती होती है। ऐसे मे ‘वन नेशन वन एलेक्शन’ जरूरी हो जाता है,क्योंकि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी धन के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था अन्य जरूरी कामों मे अपना ध्यान लगा सकती है।

 

बिबेक देबरॉय ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है की अलग-अलग वक्त पर चुनाव कराने से शासन के स्तर पर क्या-क्या परेशानियाँ या सकती है। रिपोर्ट मे उन्होनें कहा की शासन के बड़े क्षेत्र में प्रतिकूल प्रभाव मूर्त और अमूर्त दोनों है। देबरॉय ने कहा, “स्पष्ट रूप से बार-बार आदर्श आचार सहिंता लगाए जाने से विकासात्मक परियोजनाएं और अन्य सरकारी गतिविधियां निलंबित हो जाती है.. बार-बार चुनावों का बड़ा अमूर्त प्रभाव यह होता है की सरकार और राजनीतिक दल लगातार प्रचार मोड में रहते है।”

बार-बार हो रहे चुनाव से क्या नुकसान 

बार-बार चुनाव से चुनावी मजबूरियां नीति निर्धारण के फोकस को बदल देती है। इस दौरान लोकलुभावन वादे और राजनीतिक रूप से सुरक्षित उपायों को उच्च प्राथमिकता दी जाती है,जो लंबे व्यक्त के लिए शासन व्यवस्था के लिए ठीक नहीं होते है। इससे विकासात्मक उपायों के डिजाइन और योजनाओं के डिस्ट्रीब्यूशन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रिपोर्ट में कहा गया है की भारतीय जनसाख्यिकी और युवा आबादी की लगातार बढ़ती अपेक्षाओं की देखते हुए, शासन में आने वाली बाधाओं को शीघ्रता से दूर करना जरूरी है।

रिपोर्ट मे यह दावा किया गया है की लगातार होने वाले चुनाव के चलते सरकार या सियासी पार्टीयां हमेशा चुनावी मोड में रहती है। चुनाव को ध्यान में रखते हुए लोकलुभावन वादे किए जाते है,जिससे जरूरी योजनाओं का क्रियान्वयन ठप्प पड़ जाता है। लक्षित लोगों को ध्यान में रखते हुए किए वादे की होड़ में जरूरी सेवाएं लोगों तक पहुँच पातीं।

भारत के विधि आयोग ने चुनावी कानूनों में सुधार पर अपनी 170वीं रिपोर्ट में इस विचार का समर्थन किया है की हमें उस स्तिथि में वापस जाना चाहिए जहां लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते है । विधि आयोग नें सुझाव दिया की जिन विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा चुनाव के छह महीने बाद समाप्त हो रहा है,उनके चुनाव एक साथ कराए जा सकते है। ऐसे चुनावों के नतीजे विधानसभा कार्यकाल के अंत मे घोषित किए जा सकते है।

 

बार बार लागू होती है आदर्श आचार सहिंता 

एक साथ चुनाव कराने से हर साल अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाला भारी खर्च भी कम हो जाएगा। चुनाव  आयोग ने लोकसभा और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं कर चुनाव कराने की लागत 4500 करोड़ रुपए आँका है। चुनावों के कारण आदर्श आचार सहिंता लागू हो जाती है और सम्पूर्ण विकास कार्यकर्म और गतिविधियां रुक जाती है। बार-बार चुनाव होने से आचार सहिंता को लंबे समय तक लागू किया जाता है,जो सामान्य शासन को प्रभावित करती है। बार-बार चुनाव होने से सामान्य सार्वजनिक जीवन बाधित होता है और आवस्यक सेवाओं के कामकाज पर असर पड़ता है। यदि एक साथ चुनाव होते है तो चुनावों की अवधि कुछ खास दिनों तक ही सीमित होगी।

वन नेशन वन इलेक्शन के लिए चुनोतियाँ 

वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर होने वाली कठिनाइयों से गुरेज नहीं किया जा सकता। चुनाव आयोग को लगता है की एक साथ चुनाव कराने के लिए एलेक्ट्रिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और वोटर वेरीफ़ीएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) मशीनों की बड़े पैमाने पर खरीद की आवश्यकता होगी। चुनाव आयोग का अनुमान है की (ईवीएम) और (वीवीपीएटी) की खरीद के लिए 9284.15 करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी। मशीनों को हर 15 साल में बदलने की भी आवश्यकता होगी जिस पर फिर से व्यय करना होगा। इसके अलावा, इन मशीनों को भंडारण लागत मे वृद्धि होगी।

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